करोना समय

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दुष्यन्त सिंह चौहान द्वारा रचित कविता आप के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।
दुष्यन्त एक बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं – चित्रकार, कवि, फोटोग्राफ़र और बाईकर..देश प्रेम को दिल में लिए एक सिपाही।

उन्ही के शब्दों में

सब कुछ देखा, सब में डूँढा.. तेरा जैसा कोई नहीं माँ.. 
मैं हूँ पथिक, मार्ग की बाधा कंकड़ काँटों से परिचित हूँ,
मंज़िल दूर बहुत है लेकिन मैं गतिशील और अविजित हूँ ..

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बीत गए दिन रैना बन बन…

कब उग आयी किरन सुबह की, कब हो गया सबेरा,
चिड़ियाँ कब चहकी डालों पर, छोड़ के रैन बसेरा।
कोलाहल सब ग़ायब है, बस झींगुर के जैसी झन झन,
बीत गए दिन रैना बन बन…..।

लगता है डर गयी दिशायें, गाँव शहर सब सूने सूने,
हम जैसे कुछ घर में निष्क्रिय, कुछ मज़दूरों के पदतल भूने।
शेष दहकते अंगारों पर आशाएँ जलती छन छन,
बीत गए दिन रैना बन बन………।

खिड़की के बाहर झांकें,निराशा की दिखती अंधियारी,
कोई मीत कहे तो इतना, आएगी मँहकी उजियारी।
छल गए आँखों के सपने, जाग रही रोती सी धड़कन,
बीत गए दिन रैना बन बन……..।

ऐसा लगता है ये धरती भीषण हमसे बदला लेगी,
तमचुर बाँग नहीं देंगे, कब भोर सुनहली बेला होगी।
कब फिर मचलेंगे चंचल स्वर, कब होगा पहले सा जीवन,
बीत गए दिन रैना बन बन.!!!!

दुष्यन्त

तमचुर…. poultry

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